Wednesday 30 July 2014

धन्य-धन्य यह लोकतंत्र व अन्य कविताएं : प्रेमचंद गांधी

उदाहरण: प्रेमचंद जयंती पर  विशेष अंक

मित्रो! प्रेमचंद जयंती के अवसर पर उदाहरण के लिए इससे सुखद और क्या हो सकता है कि इस अवसर पर हम हमारे समय के एक ऎसे समर्थ  कवि- कथाकार प्रेमचंद गांधी की कविताएं पाठकों के सामने रख रहे हैं जो हम सबको प्रिय हैं । कविता और संस्कृति- कर्म के क्षेत्र में प्रेमचंद गांधी का नाम आज किसी किसी परिचय का मोहताज़ नहीं है। सही मायने में वे पाठकों के कवि है, जिनकी कविता पाठक पढ़ना चाहते हैं और उनकी कविताओं की प्रतीक्षा करते हैं। उनकी भाषा वाली सीरिज की तीन खण्डों में  'नास्तिकों की भाषा'  'भाषा की बारादरी' व 'भाषा का भूगोल' लम्बी और चर्चित कविताएं हमारे समय की कविता यात्रा में एक मील का पत्थर है, दुखद है कि हिन्दी कविता आलोचना ने अभी तक इस कविता और उसके कवि के बारे में अपनी कलम न के बराबर चलायी है। इस कवि की शक्ति का प्रमाण यहां संकलित उनकी कबिताएं स्वयं देती हैं। कविता को ठीक से जानने- समझने वाले आलोचक- पाठक भी इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं होंगे, मेरा ऎसा मानना है।


पर्यटन स्थलों पर जहां आमतौर पर लोग घूम- फिर चंद तस्वीरें ले मुदित हो लौट आते हैं, एक कवि शेरगढ़ जाता है तो वहां के क्या- क्या विस्मय पाठकों के लिए बटोरता है,  ’भग्न देवालय’ ’अटरु’ कविताएं इसकी साक्षी है। ’सावण की डोकरी सी सड़क’ धन्य धन्य लोकतंत्र’ हमारी व्यवस्था में फैली अव्यवस्था और भ्रष्टाचार के कच्चे चिठ्ठे अनूठे अंदाज़ में कवि हमारे सामने रखता है। इसी तरह  ’कांगसियो’, ’दळ बादळी रो पाणी’व’पोदीना’ कविताओं में जिस भाषा- शिल्प, लोक-शैली में अपने समय के यथार्थ की वास्तविकताएं सामने आयीं हैं, अभिनव है।


धन्य-धन्य यह लोकतंत्र व अन्य कविताएं : प्रेमचंद गांधी



भग्न देवालय


पार्वती की हिलोरें खाती लहरों में
उबासियां लेता जीर्ण-शीर्ण इतिहास है शेरगढ़
उजड़े हुए वीरान मंदिर, महल और हवेलियों का
कोई भूला हुआ दर्द भरा तराना है शेरगढ़

जहां हर तरफ किसी दीवार या फर्श में
गड़ा हुआ खजाना खोजने आए लोगों की
हताश मेहनत के खुदे हुए गड्ढ़े हैं

पुरातत्व विभाग का चौकीदार नहीं खोल पा रहा
संरक्षित स्मारक का जंग लगा ताला
जैन तीर्थंकरों की विशाल प्रतिमाएं बंद हैं तालों में
वीरान किले पर साम्राज्य है मधुमक्खियों के असंख्य छत्तों का
जिसके प्रहरी हैं चमगादड़ और वन्यजीव

सुनसान हवेलियों से वो सब चुरा लिया गया है
जो किसी काम आ सकता है
फिर वो चाहे दरवाजा हो या चौखट-खिड़की
सिर्फ पत्थर बचे हैं अब
जिन्हें निकाल कर गांव वाले
नए घर और खेतों की मेड़ बनाते हैं
अनगिनत वनस्पतियां उग आई हैं
इस पुरा संपदा के आंगन में
जिन्हें रौंदकर मूर्ति तस्कर
निकाल ले गए एक शानदार इतिहास
विश्व बाजार में बेचने के लिए
तस्करों ने भव्य इतिहास ही नहीं
यहां का भूगोल भी बर्बाद कर डाला
चीख कर कहती है
पार्वती की वेगवती धारा

यहां के बाशिंदे निकले पेट पालने के लिए
जो बचे हैं वो पथरीली धरती की कोख से
जैसे-तैसे अन्न उपजाने में लगे रहते हैं अहर्निश

गांव का एक बुजुर्ग सोचता है
क्या कभी पहले जैसा चहल-चहल भरा होगा शेरगढ़
क्या बेगम की हवेली में फिर गूंजेंगे स्त्रियों के कहकहे और गीत
क्या जिनालय में गूंजेगा णमोकार मंत्र
क्या पार्वती के तट पर पछाड़ खाती लहरों का
कभी रुक सकेगा आर्तनाद?

अटरू


यहां कच्चे रास्ते में
मिट्टी और कचरे के नीचे
दबी पड़ी है पुरा संपदा

भग्न देवालय है गढ़गच्छ
न जाने कौन-से प्रकोप से धराशायी हुआ
यह विशाल मंदिर
एक हजार बरस पुरानी मूर्तिकला का अद्भुत खजाना
बेतरतीबी से बिखरा पड़ा है चारों ओर यहां

पुरातत्ववेत्ताओं ने खुदाई में
निकाल तो लिया मंदिर का मुख्य आधार
वेदी की दीवारों पर अक्षत बची भव्य प्रतिमाएं
लेकिन नहीं बचा सका मूर्ति तस्करों के हाथों से उन्हें

कितना विशाल रहा होगा इस मंदिर का प्रांगण
जहां कहते हैं दो बाप-बेटे कहीं बिछुड़े तो
इसी परिसर में रहते हुए
पंद्रह बरस बाद ही मिल सके किसी समारोह में

ठीक से मुआयना करने के लिए
भग्न मंदिर के अवशेषों पर करनी पड़ती है चढ़ाई
महान कला के इतिहास पर
पांव रखते हुए
होना पड़ता है शर्मसार

अटरू की सरजमीं में
ना जाने कितनी पुरा संपदा दबी पड़ी है अभी भी
जहां जरा-सी खुदाई में निकल आता है
कोई ना कोई ऐतिहासिक पाषाण

स्मारक परिचर दिखाता है
एक विशाल कमरे में बंद पड़ा कला का खजाना
हम फिर शर्मिंदगी से भर जाते हैं
जब देखते हैं किसी अनाड़ी ने
बेरहमी से सिंदूर पोत कर
यक्ष प्रतिमा को हनुमान बना डाला

एक मामूली ताले की सुरक्षा में कैद है
अरबों की पुरा संपदा
बचाव के लिए दीवार पर लटकी है
एक पुरानी दुनाली बंदूक
जबकि एक मामूली नेता घूमता है
हथियारबंद फौज के साथ

गढ़गच्छ से लौटते हुए सोचता हूं मैं
भव्य और गौरवशाली कलात्मक इतिहास को
किसी आपदा ने जितना नष्ट किया
उससे कहीं ज्यादा हमने नष्ट होने दिया
वर्ना कैसे कोई तस्कर
यहां की प्रतिमा को न्यूयार्क बेच आता?
  

सावण की डोकरी-सी सड़क


इन गाँवों तक आ तो गई है सड़क
प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की कृपा से
पता नहीं कब तक रहेगी यह
एक बारिश भी झेल पायेगी या नहीं

जब राजधानी में ही बह जाती हैं
हर बारिश में सड़कें
इन गाँवों का क्या होगा
नहीं सोचते इन गाँवों के आदिवासी

उनके लिए सड़क का होना न होना बेमानी है
कौनसी कार, जीप या बाइक है उनके पास
जिसके लिए चाहिये सड़क
उनके पास तो साइकिल तक नहीं
और कौनसी बस-मोटर आती है यहाँ
जिसे चलने के लिए चाहिये सड़क

इसलिए यह नई-नवेली ‘पेवर’ सड़क
आजादी के साठ साला जश्‍न की
एक बीरबहूटी-सी सौगात है इन गाँवों को
अगले सावन पता नहीं
यह डोकरी रहे न रहे 

धन्य-धन्य यह लोकतंत्र


जिस गाँव में जाने के लिए सड़क नहीं
पीने के लिए साफ पानी नहीं
करने को मजदूरी नहीं

जहाँ आज भी लोग मजबूर हैं
नंगे पैर चलने और
नंगे बदन रहने के लिए
स्त्रियाँ अभिशप्त हैं चीथड़ों में जीने के लिए

जहाँ न कोई अस्पताल-डिस्पेन्सरी है
और न ही कोई स्कूल
जहाँ के लोग नहीं जानते
प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का नाम
और उनके ओहदों की अहमियत

जहाँ के लोगों को न अलकायदा का पता है न सद्दाम का
जो नहीं जानते बुश किस ताकत का नाम है
जिन्होंने जिन्दगी में कभी रेल नहीं देखी
चीलगाड़ी जिनके लिए
किसी भयानक चिड़िया का नाम है

ऐसे दीन-हीन फटेहाल आदिवासियों के द्वार
आई है हमारी सरकार
धन्य-धन्य यह लोकतंत्र
गाँव में खुली है देशी दारु की सरकारी दुकान 

कांगसियो *

........................
* एक राजस्‍थानी लोकगीत को याद करते हुए 
..............................

मैं तो पहले ही बरजती थी
मेले-ठेलों में मत जाओ ढोला
लेकिन क्‍या करूं
पीव जी मुझे लालच देकर
अपने साथ ले जाते
दिला लाते रंग बिरंगे रिबन और
काजल-बिंदी के साथ चूड़ी-कांचळी
साथ घूमते मैंने देखा कनखियों से
सिणगारियों को ताकते पिया को
घर लौटने पर अनजाने ही उमड़ता
मेरे भीतर गीत
’म्‍हारा छैल भंवर रो कांगसियो
सिणगारियां ले गई रै’
***
पहले पढ़ाई फिर नौकरी
और चले आए पिया जी शहर में
जहां न जाने कितनी सिणगारियां थीं
छुट्टी-तीज-त्‍यौंहार में
गांव आते पीव जी
जेब में से बखत-बेबखत
कंघी निकाल बालों को संवारते
मालजादी कंघी को घूरती मैं
चुपचाप गुस्‍से में गाती
’म्‍हारा छैल भंवर रो कांगसियो
सिणगारियां ले गई रै’
***
और एक दिन जिद कर
मैं भी चली आई

पिया संग शहर
बचाने पिया को
सिणगारियों के जाल से
मैं ठहरी गांव की
कैसे जानती शहरी रंग-ढंग
पर सौदा-सुलफ के लिए
पिया संग जाकर देखा
शहर क्‍या है
सिणगारियों का पूरा बाजार है
पिया ने धीरे-धीरे सिखाए
मुझे शहर के रंग-ढंग
मैं पीढ़े पर बैठ काजळ-टींकी करने वाली
करने लगी मेकअप
खुद ही बन बैठी सिणगारी
मेरे भीतर शायद कहीं
एक विश्‍वास था कि
ऐसा करने से मैं बचा लूंगी पिया जी को
बाजार की सिणगारियों से
***
गांव के मेलों में आने वाली
सिणगारियों के पास
कितना-सा तो होता था सामान
मेले के साथ ही हो जाता खत्‍म
पर इस नुगरे शहर में
कोई चीज कभी खत्‍म ही नहीं होती
रोज नई से नई आती
पुरानी शायद गांव के मेलों में चली जाती

बरस बीत गए
मेलों में सिणगरियों को देखे
पर शहर की दुकानों पर
साड़ी-सलवार-जींस-पेंट में आ बैठी हैं
नए जमाने की सिणगारियां
***
घर-गृहस्‍थी बाल-बच्‍चे नाते-रिश्‍तेदारी
और पिया की तबादलों वाली नौकरी
इस चक्रव्‍यूह में मैं
भूल ही गई सिणगारियों को
अब तो मैं खुद ही थी सिणगारी
पिया की जेब में अब
जरूरत ही नहीं रही कंघी की
रेशमी बालों की जगह
नजर आता है चांद
और बरबस ही मेरे कण्‍ठ से फूटता है गीत
’म्‍हारा छैल भंवर रो कांगसियो
सिणगारियां ले गई रै
सिणगारियां लेगई रै
बिणजारियां ले गई रै।‘
दळ बादळी रो पाणी

‘कुण जी खुदाया कुआ बावड़ी ये
कुण जी खुदाया ये समद तळाव’
नहीं रहे वो सेठ-साहूकार
खत्‍म हो गए राजा-रानी सब
जो रेत के धोरों में
प्‍यासे कण्‍ठों के लिए खुदवाते थे
कुए-तालाब-बावडि़यां अनगिनत
सोने-सा था मोल पानी का
चातक ने सीख लिया था
एक बूंद पर जीना
ऊंट जैसे जानवर तक ने
विकसित कर ली थी
पानी बचाने की कला
घर-घर में सहेजकर
यूं जमा किया जाता था पानी
जैसे जोड़नी हो
उम्र में सांसों की संख्‍या

मरुधरा का रास्‍ता भूल गए
बादलों की तरह
भटक गई हमारी चेतना
मूंज की जेवड़ी की तरह बटी हुई
हमारी आदिम प्रज्ञा
लगातार पानी में रहने से
गळती ही गई-छीजती रही
हम भूलते गए पानी को अवेरना
और सूखते गए तमाम जलस्रोत
अब भी बरसते हैं मेघ
लेकिन हम खुद ही से पूछते हैं
’दळ बादळी रो पाणी भाया कुण तो भरै?’

पोदीना


1.
रेगिस्‍तान की विकट गर्मी में
जलती हुई लू और तपती धूप में
एक तुम्‍हीं तो हो
जो प्‍याज और छाछ के साथ
हमारे तन-मन को सुकून देते हो
तुम्‍हारी ही शान में
सदियों से गाती आ रही हैं
हमारी पीढि़यां
‘झुक जा रै हरिया पोदीना
ओ लुळ जा रै हरिया पोदीना
तनै सिल पै बंटाऊं हरिया पोदीना’।

2.
ना जाने कितनी सदियों पुरानी है
तुम्‍हारी और केवड़े की जंग
लेकिन, सास हो कि नणद
जिठानी हो कि देवरानी
तुम्‍हें ही लाड लडाती रहीं
मर्दों ने कभी हमारी तरह
नहीं गाए तुम्‍हारे गुण
सदा ही लट्टू रहे केवड़े के
मर्दों का मान रखने
और तुम्‍हारी सुगंध फैलाने
हमने माथे पर धरा केवड़ा
और तुम्‍हें गोदी में टाबर की तरह
और गाती चलीं सनातन
’लुळ जा रै हरिया पोदीना’।

गीत पानी के


पनघट और परीण्‍डे के गीत
तालाब, कुए और जोहड़ के गीत
नल-हैण्‍डपम्‍प के रास्‍ते चलकर
फ्रिज-टंकी में बंद हो गए
ऐसे बोतलबंद हो गये...

-प्रेमचंद गांधी


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