मायामृग |
"गुनाह भीतर होता है बाहर से पहले.....होने से पहले जुटा लेता है बेगुनाही के सबूत...। गुनाह जो हो ना सका, सोचा गया, हो ही गया....। सबूत गुनाह के भी बहुत थे, बेगुनाही के भी .. बेगुनाही के सबूत हमेशा कच्चे होते हैं.कुछ छिपा लिए...कुछ दिखा दिए...।... बुरा वक्त सजा का नहीं, बुरा है फैसले के इंतजार का वक्त....अपने गुनाह से ड रता रहा...तुम्हारी बेगुनाही से भी....तुम बेगुनाह थे,चीख तो सकते थे....मैं गुनाहगार....चुप न रहता तो क्या करता......तकदीरों और तदबीरों का खेल खत्म होने के बाद, तुम्हें हो तो हो...मुझे किसी फैसले का इंतजार नहीं...."
मायामृग
जन्म: 26 अगस्त 1965( फ़ाजिल्का- पंजाब)
शिक्षा: एम. ए., बी.एड., एम.फ़िल.(हिन्दी)
प्रकाशन: शब्द बोलते हैं- 1988, कि जीवन ठहर जाए-1999
संप्रति: स्वतंत्र लेखन व प्रकाशन व्यवसाय उनके द्वारा संचालित बोधि प्रकाशन ने सस्ते मूल्य पर अच्छी और सुरुचिपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित पूर्व प्रकाशकों द्वारा फ़ैलायी गयी इस धारणा को गलत साबित कर दिया कि किताबें बिकती नहीं हैं। बोधि प्रकाशन हर अपने स्थापना वर्ष से ही स्तरीय पुस्तकें छाप ही नहीं रहा बल्कि बिक्री के नए आयाम भी स्थापित कर रहा है।
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मायामृग की कविताएं
(एक चुप्पे शख्स की डायरी सीरीज की कुछ गद्य कविताएं)
१
तुम्हें अपनी बेचैनियां कहनी होती हैं, मुझे अपना सुकून तलाशना होता है....प्रेम अगर बेचैनी से परे कुछ नहीं तो प्रेम की तलाश पूरी होने तक यह सफर बीच में छूट जाना तय है....हर कदम जो इस राह पर पड़ा, उसके निशान सिर्फ देखने के लिए नहीं....पीछे आते को राह दिखाने के लिए भी हैं....। चलो...यह सफर यूं ही सही....तुम कहते रहो, मैं चुप रहूंगा....
(एक चुप्पे शख्स की डायरी...पन्ना नंबर ग्यारह....एक और एक दो कि......एक और एक ग्यारह....सारी कहावतें चुप खड़ी हैं.....)
२
सम्बन्धों से तय होगी जरुरतें कि जरुरतों से तय होंगे सम्बन्ध....जो बदलते गए, वे सम्बन्ध रहे होंगे....जो दिखते रहे वे जरुरतों में शामिल थे....बदलना भी तय था, दिखना भी....सम्बन्ध भी सच थे...जरुरतें भी...चुप रहकर सम्बन्ध निभाए....बोल बोलकर जरुरतें दर्शाई....इस ढेर सारे सन्देह के नीचे सम्बन्ध दबे हैं कि जरुरतें, चलो खोजते हैं....
(एक चुप्पे शख्स की डायरी, सत्रहवां पन्ना ...कुछ तो है यहां, मिले भले ना मिले....)
३
पकड़ के साथ ही तय हो जाता है छूटना.....कि जैसे छूट गए थे आखिरी कुछ शब्द बात पूरी होने से पहले...जिन्हें मुड़ने से पहले सुन नहीं पाए तुम.......सफर में छूट जाता है पीछे फालतू सामान...खाली बोतलें पानी की...कि याद नहीं रखना होता ...छूटा हुआ कुछ भी....छूट ही गया था वह गमला कसकर थामे हुए हाथों से भी...कि जिसमें पहली बार उगा था लाल फूल....और वह सफेद मनकों की माला...जिसके मनके बिखर गए हाथ से छूटते ही....। फकीर की झोली में रखे सफेद पत्थर उसी माला के हैं...जिनसे तोड़ता है वह भीतर का महामौन...और छोड़ता चलता है चुप्पियां पीछे राह भर.....
(एक चुप्पे शख्स की डायरी चालीसवां पन्ना.....पता नहीं क्या है वह जो तुम्हारे छोड़कर चले जाने बाद भी नहीं छूटा ........)
४
गुनाह भीतर होता है बाहर से पहले.....होने से पहले जुटा लेता है बेगुनाही के सबूत...। गुनाह जो हो ना सका, सोचा गया, हो ही गया....। सबूत गुनाह के भी बहुत थे, बेगुनाही के भी........बेगुनाही के सबूत हमेशा कच्चे होते हैं......कुछ छिपा लिए...कुछ दिखा दिए....।.... बुरा वक्त सजा का नहीं, बुरा है फैसले के इंतजार का वक्त....अपने गुनाह से डरता रहा...तुम्हारी बेगुनाही से भी....तुम बेगुनाह थे,चीख तो सकते थे....मैं गुनाहगार....चुप न रहता तो क्या करता......तकदीरों और तदबीरों का खेल खत्म होने के बाद, तुम्हें हो तो हो...मुझे किसी फैसले का इंतजार नहीं....
(तुम्हारी अदालत में कटघरे में हूं....मुन्सिफ ना होते तो होते तुम भी यहीं...... एक चुप्पे शख्स की डायरी....80 वां पन्ना)
५
याद है...वो छोटी सी चिडि़या...जिसे बहुत बार छूना चाहा तुमने....हर बार उंगुलियों की हरकत भर से डर गई जो....जिसका नाम रखने को लेकर बहुत देर तक लड़े थे हम...आखिर वही तय हुआ जो तुमने चुना....तुमने रख दिया...मुझे वही नाम बहुत अच्छा लगा....चितकबरे पंखों की खूबसूरती पर हमेशा कुर्बान रहे तुम....पता है पंखों की खूबसूरती उनके रंग में नहीं....उनकी उड़ान में थी...आमसान घुट जाने के बाद समझ आया मुझे.....बहुत दिन बाद तक आती रही रोज...वहीं उसी जगह बैठती ....मैंने उस दिन के बाद उसे दाना चुगते नहीं देखा....जीती कैसे होगी िफर भला....पर चिडि़या के सामने कहां हैं इतनी विवशताएं....इतनी अनिवार्यताएं जीने की...मन की मौजी..मन हुआ तो चुगा...न हुआ तो न हुआ....उसे कहां सफाई देनी होती है अपने हर काम की....। सुनो, .....आज सुबह वहीं उसी जगह उसके पंख नुचे हुए मिले....उनमें चितकबरा रंग अब भी था....बस उड़ान नहीं थी....मुझे सुन्दर नहीं लगे पंख....तुम्हें क्या अब भी अच्छे लगते हैं चितकबरे पंख......
(उस चिडि़या में किसी और के हों न हों....उसके अपने प्राण जरुर बसते थे.......एक चुप्पे शख्स की डायरी...91 वां पन्ना ..)
(दीवाने के खत सीरीज की दो गद्य कविताएं)
दीवाने के खत : चौथा खत
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मेरे प्रिय
आंख आंसुओं से नम नहीं होती, सपनों से होती है। यह कभी नहीं जान पाता, जो उस दिन तुम्हारी आंखों में ना झांका होता। आंखें देखीं, आंखों में ठहरा पनियाया सपना देखा। भीगे हुए सपने सूखे जीवन को सींचते हुए जाने किस हरियाये पल के सपने देखते हैं। पूछना तो है पर किससे पूछूं कि सपने देखना पानी पर पानी लिखने जैसा क्यूं है?
पानी तुम्हारी आंख में था, पानी कांच के गिलास में भी था जिसे आधा छोड़ दिया तुमने। मेरी प्यास उस अधूरेपन से पूरी भर गई। तुमने नदी को उस छोर से छुआ होगा जरुर, वरना मुझ तक बहते आते कैसे बचा लेती इतना पानी। पानी कि जिस पर लिखा है तुम्हारा खत। हां, नम होकर पढ़ा हर बार मैने पानी पर लिखा पानी....
तुम्हारा ही
मैं
दीवाने के खत : चौदहवां खत
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मेरे प्रिय
किस बात का अफसोस है तुम्हें। नहीं कुछ भी नहीं है जिसे भूल कहा जाए। पता नहीं क्यो लगता है तुम्हें कि जो हुआ उसे बदला जाना था। उसे ऐसा नहीं होकर वैसा होना था। तुम्हारे बीते हुए दिन अफसोस के नहीं हैं, पछतावा और अफसेास फैसले में पहले से छिपे रहते हैं बस वक्त आने पर दिखने लगते हैं। इन चूकों के साथ ही जीना होता है, पुरानी भूलें नई भूल करने की जमीन तैयार करती हैं। नई भूल करें, पुरानी भूलों पर अफसोस नहीं रहेगा...गलतियां भी करें तो हर बार नई हों, बस इतना सा ही तो जीवन है....। भूलों को जताना दुनिया है, भूलों को भूल जाना प्रेम। जो प्रेम अतीत तो स्वीकार न कर सके वह भविष्य को स्वीकार करेगा, संदेह है। जो कल तुम्हारा था, वह मेरा हुआ, जो आज तुम्हारा है, वह मेरा हुआ, जो भविष्य मेरा है, लो यह तुम्हारा हुआ....
तुम्हारा ही
मैं
(गलत व्याकरण सीरीज की दो कविताएं)
मुहावरे
पानी पानी में मिला
गागरें गागरों से
टकराती रहीं
सागर सरक कर सागर से जा मिला
पानी- पानी कौन हुआ...
विमर्शों में
कविता में सच ढूंढ़ने से बेहतर
और आसान था
सागर में गिरी सुई ढूंढ लेना...।
२
युग्म
तुम सही थे...
गलत मैं भी नहीं...
बस
इतनी सी बात थी...कि
हम मिल न सके!
कुछ और चुनी हुयी कविताएं
१
रंग- सुगंध
मैंने तुम्हें जो फ़ूल दिए
उनमें गंध नहीं थी...
मुझे पता है
तुम सुगंध भर दोगी इनमें...
तुमनें मुझे जो फ़ूल दिए
बेरंग हैं वे
तुम्हें यकीन रहा होगा
कि रंग भर ही दूंगा मैं...
तुम्हारा- मेरा प्रेम
दरअसल रंग और सुगंध की तलाश है..।
(तुम्हें पहले मिले तो तुम मुझे बताना, मुझे मिले तो मैं सबको बताऊंगा...)
२
तुम्हारी किताब में मेरा हिसाब
तुम्हारा हिसाब
मेरी किताब में दर्ज़ नहीं है
तुम्हारे खाते में जो ’दिया’ है
उसे मेरे ’लिया’ में चढा़ दो
मेरी कमज़ोरियों को
तुम्हारे उलाहनों से घटाकर
उन पलों में जोड़ दो
जब तुमने कहा था
हमारा मिलना बिना शर्त है...।
तलपट कुछ भी कहे
अपने लिखे में काट- छांट करना
तुम्हारा अधिकार है...।
मैंने लिखा नहीं,
इसलिए काटा नहीं...।
तुम्हारी किताब में मेरा हिसाब है
इसके बाद कोई हिसाब- किताब नहीं...।
३
बिना धार के चाकू से
पहले खुद को काटा
वह हर धागा काटा जो बांधता था
वह हर रास्ता काटा जो तुम तक पहुंचता था
बिना धार के चाकू से वह सब काटा
जो कट सकता था....
तुम्हारा एतराज अपनी जगह सही है
आखिर इतना कटा कटा सा क्यूं रहता हूं मैं आजकल...
सोचा, चाहा भी कहना पर... बहुत डर लगा अपना डर लिखते हुए...
(अपने डर सहेज कर जीता हूं... तुम कहते हो डर- डर के जीता हूं...)
४
हामी
उसने कहा, स्त्री! तुम्हारी आंखों में मदिरा है...
तुम मुस्करा दीं।
उसने कहा, स्त्री! तुम्हारे चलने में नागिन का बोध होता है...
तुम्हें नाज़ हुआ खुद पर...।
अब वह कहता है-
तुम एक नशीली आदत और ज़हरीली नागिन के सिवा कुछ भी नहीं...।
(ओह! इसका अर्थ यह भी होता है)
तुमने पहले क्या सोचा था स्त्री...
उसकी तारीफ़ पर हामी भरते हुए!
५
एक कहानी थी
एक कहानी थी... दरअसल एक ही कहानी थी।
कुल जमा दो हिस्सों में जिया इसे
पहला हिस्सा फ़ैसले लेने में बिताया...
दूसरा हिस्सा फ़ैसलों को बदलने में...
यह पता नहीं किसकी कहानी है... शायद आपकी... शायद मेरी...
६
आग
आग को घेरे बैठे हैं लोग
उन्हें लगता है आग ताप रहे हैं
दरअसल उन्हें ठीक से पता नहीं
आग तपा रही है उन्हें
मुझे तो यह भी पता है कि
आग को घेरा नहीं जा सकता
जब भी घेरेगी
आग ही घेरेगी उन्हें...।
(यूं कुछ भी सोचकर खुश होने का नैतिक अधिकार अब भी सुरक्षित है... तमाम वर्जनाओं के बाद भी...)
७
जो टूट गया
सधे हाथों से
थाप थाप कर देता है आकार
गढ़ता है घड़ा
गढ़ता है तो पकाता है
पकाता है तो सजाता है
सज जाता है जो.. वह काम आता है...
हर थाप के साथ
खतरा उठाते हुए
थपते हुए
गढ़ते हुए
रचते हुए
पकाते हुए
टूट जाता है जो... टूट जाता है...
जो काम आया... उसकी कहानी आप जानते हैं
जो टूट गया, मैं तो उसके लिए लिखता हूं कविता...।
- मायामृग
5 comments:
मायामृग जी भावों और शब्दों से सम्मोहन बुनते हैं। उन्हें पढ़कर मन सदा ही आल्हादित होता है।
इनकी डायरी और काव्य-संग्रह है मेर पास जिन्हें हाथ में आते ही पढने का लोभ संवरण न कर सकी।
इनका लेखन आकर्षण नहीं खोता। हर बार मन को विभोर कर जाता है।
अद्भुत !
हृदय से आभारी मित्र नवनीत जी आपके नेह के लिए। आपने सुरुचिपूर्ण ढंग से रचनाओं को यहां प्रस्तुत किया, मेरे लिए यह बेहद सुखद अनुभूति है....सादर
एक बार ििफर से आभार नवनीत जी, इस याद को साझा करने केे लिए
सुन्दर भाव व उपयुक्त शब्द।
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