Saturday 4 May 2013

नीलोत्पल की कविताएं



मित्रो! ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित और ज्ञानपीठ से ही प्रकाशित संकलन 'अनाज पकने का समय' के कवि हमारे समय के महत्त्वपूर्ण युवा काव्य-हस्ताक्षरों में से एक हैं।  नीलोत्पल की कविताएँ हमारे समय और हमारे बाहर- भीतर के परिवेश की ऎसी कविताएं हैं जिन्हें पढते हुए एक अलग ही तरह की अनुभूति होती है। नीलोत्पल की कविता में कवि नहीं, कविता बात करती है वह भी अपने पूरे उद्दाम के साथ। हमारी मनुष्यता में हो रहे स्खलन को बहुत ही बारीकी से जांचती- परखती

"घर लौटते हुए ज़रूर देख लेना कि
फुटपाथ पर सोये बेघर लोग
कितने संशयों से भरे पड़े हैं
हो सके तो
उठे नहीं उन पर कोई हिकारत भरी नज़र
इसका ध्यान रखना"
+++

"चलना है दुनिया के साथ
जो कि बाहर से ज़्यादा उमड़ती है भीतर
यहाँ एक चिडि़या का डर आसमान छूता है
और सैकड़ों शब्द निकल जाते हैं जीभ लपलपाते"

उनकी यह सूक्ष्म संवेदन द्दष्टि ही हमें उनकी कविता का पाठक बनाती है। निरंजन श्रोत्रिय द्वारा संपादित 'युवा द्वादश' में भी शामिल होने के अलावा नीलोत्पल की कविताएं नया ज्ञानोदय, वसुधा, समकालीन भारतीय साहित्य, सर्वनाम, बया, साक्षात्कार, अक्षरा, काव्यम, समकालीन कविता, दोआब, इंद्रप्रस्थ भारती, आकंठ, उन्नयन, दस्तावेज़, सेतु, कथा समवेत इत्यादि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं निरंतर प्रकाशित होती ही रहती हैं। 

नीलोत्पल

जन्म: 23 जून, 1975, रतलाम, मध्यप्रदेश. 
शिक्षा: विज्ञान स्नातक, उज्जैन. 
प्रकाशन: ‘अनाज पकने का समय‘ काव्य संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित. 
पुरस्कार: ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार व विनय दुबे स्मृति सम्मान 
सम्प्रति: मेडिकल रिप्रेज़ेंटेटिव
सम्पर्क: नीलोत्पल, 173/1, अलखधाम नगर, उज्जैन, 456 010, मध्यप्रदेश, मो.: 0-98267-32121



नीलोत्पल की कविताएं


   १.

नमक का पानी


घंटे भर से रो रही है
वह औरत

जहां वह रो रही है
वह जगह उसकी नहीं है
शायद किसी दूसरे की भी नहीं

वह रास्ता है
लोग निकलते हैं
और उसका रोना देख
ठहर जाते हैं कुछ देर के लिए

कुछ देर के लिए लगता है
जैसे शामिल होने जा रहे हों
जैसे दौड़ ही पड़ेगा अभी कोई
उसे समझााने के लिए
लेकिन पाँव आगे बढ़ते नहीं

लोग निकल रहे हैं
और ऐसा चल रहा है

जबकि
पत्ते गिर रहे हैं लगातार
मिट्टी सोख रही है नमक का पानी
सुखा देगी हवा उसके गालो पर ठहरे दुख को

लेकिन ऊपर ही ऊपर तैरते शब्द
नहीं जान पाएंगे
वह नमक का पानी
कितने समुंदर का मथा है
कितने अहसास डूबे हैं उसके भीतर

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          २.

मैं बताना चाहता था फ़सलों की अनंत स्मृतियां


डरता हूँ खुद के करीब जाते हुए
डरता हूँ कहीं कोई देख न ले
पकड़ न ले अपनी निगाह में

कहीं कुछ छिपा रहा हूँ
कोई खिड़की खोल दे
मारे शर्म के धँस पडँू

कितनी ही बातें नंगा करती रहीं
जिन्हें ढ़ँकने की कोशिश में लगा रहा
बचता जिनके खि़लाफ़ होना था

फतवे, जुलूस, झण्डों के पीछे नहीं गया
चीज़ों के मायालोक में नहीं धँसा
फिर भी झुलसाती रहीं उनकी लपटें
चीखता रहा वसंत को वसंत कहते हुए
लेकिन लोगों का ध्यान दंगों ने खींचा

ये मेरी हक़ीक़त है
मैं रोटी के लिए नहीं लड़ा
रोटी बनाने वाले हाथों ने मेरा साथ दिया

मैं कह नहीं पाया उनके बारे में
वे हमेशा देते रहे अपने होंठों और हाथों की गरमाई
मै बताना चाहता था फसलों की अनंत स्मृतियाँ
और हाथों का तनाव भरा जि़क्र

वक़्त के चाक पर सभी को होना है
समुद्र की तरह न सही
लहर की तरह न सही
बून्द की तरह न सही
समुद्र की छाया में तन रही चट्टान की तरह
जीना चाहता हूँ समुद्र का आवेग
जो बार-बार टकराता है मुझसे


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                 3.

तुम्हारे सहारे ही जीता आया हूँ अंधेरा


रात घिर रही है
उतर रही हो तुम
मेरे अंधेरे में
उदास मन और ज़ख़्मों को सहलाते हुए

तुम्हें समेट लेना मेरे बस में नहीं
जैसे तनाव में ढिली छोड़ी रस्सी
साँस ले रही है
तुम्हें जीतने के इरादे से हारा
खुल रहा हूँ बेहद शांत
तिनके की तरह हलका होता

नहीं चाहता
समय की आपाधापी में
नष्ट हो तुम्हारे साथ जीये गए सपने
नदियों, दरख़्तों, हवाओं को सौंपने से पहले
भींगना चाहता हूँ एक बार फिर
उसी बारिश में

तुम्हारे साथ के भरोसे ही
जीता आया हूँ अब तक
तुम महज़ स्त्री नहीं हो मेरे लिए
पराजित योद्धा की आँखों में
डूबती हुई उदास चीज़ों पर
रचती रही हो समय का पहला पतझर
वसंत के लिए

तुम्हारे सहारे ही जीता आया हूँ अंधेरा

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            ४.

मैंने अपने दिनों को उम्मीदों से सराबोर रखा


मेरे मरने के बाद भी
इस दुनिया को सुंदर बनाने की कोशिशं जारी रखना

मैं जो खटता और खपता रहा हँ तुम्हारी ही तरह
मैंने अपने दिनों को उम्मीदों से सराबोर रखा
प्यार के उन दिनों की तरह
सपनों से भरपूर उमंगों में जीते हुए

घर लौटते हुए ज़रूर देख लेना कि
फुटपाथ पर सोये बेघर लोग
कितने संशयों से भरे पड़े हैं
हो सके तो
उठे नहीं उन पर कोई हिकारत भरी नज़र
इसका ध्यान रखना

मज़दूरों के हाथ बड़े सख़्त
और कपड़े कुछ मैले हैं
उनसे हाथ मिलाते या गले लगते हुए
संकोच मत करना

प्यार करते हुए
अपनी आत्मा को गवाह बनाना
और याद रखना
उगती पत्ती तुम्हें और झरती
तुम्हारे प्यार को बना रही है

जब कभी थककर हारने लगो
गुनगुनाना कविता में अपनी बेचैनी
हो सकता है दुनिया तुम्हारे खि़लाफ़ हो
नापसंद हों उसे तुम्हारे शब्द
लेकिन खुले आकाश के नीचे
तुम्हारी कोशिश भरी हार भी
सबब बन सकती है दूसरों के लिए

कोशिश करना कि अपने होने के बाद भी
बातें कर सके अगली पीढ़ी
अपनी इस पीढ़ी के बारे में
उन्हें लगे नहीं कि
दो वृक्षों के बीच छायाएँ पनपती नहीं

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          ५.

जहां एक चिडि़या का डर आसमान छूता हैं


जिस तरह शामिल होता हूँ जीवन में
बकबकाता हूँ
ग़ुस्से या अधीरता से
लड़खड़ाते जूझता हूँ

चाहे कोढ़ी के सामने फेंके सिक्के-सा
अचकचाया होऊं
या अपनी कलप छिपाने के लिए
मुस्कराता फिरूं
भिड़ना है मुझे अपनी ही असंगति से

चलना है दुनिया के साथ
जो कि बाहर से ज़्यादा उमड़ती है भीतर
यहाँ एक चिडि़या का डर आसमान छूता है
और सैकड़ों शब्द निकल जाते हैं जीभ लपलपाते

इसी मिट्टी में बदलता है रंग
चीज़ें हरी होने लगती हैं
मिलते हैं शब्द यहीं

मेरी बेचैनी शब्दों के लिए नहीं
है जीवन में उठ रहे अंतर्विरोधों को लेकर

जैसे कोई दरवाज़ा खुलने को है
और सारी इबारतें नक़्शा हैं इस व्यापक जीवन का

ख़ुद को खोता हूँ
लगता है आगे लहरें हैं
लहरों को ठेलती-तोड़ती हुईं
मेरे अंदर की सत्ता
इसी कशमकश का परिणाम है

मेरे लिए यही कविता है कि
मैं चुका नहीं हूँ
जीवन में गहरी होती जा रही फाँकों के बीच
खु़द को धर देने के लिए

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नीलोत्पल,  उज्जैन


2 comments:

अभिमन्‍यु भारद्वाज said...

सर्वोत्त्कृष्ट, अत्युत्तम बहुत सुन्‍दर रचना और आपके ब्‍लाग का टैम्‍पैलेट भी बहुत सुन्‍दर है आभार
हिन्‍दी तकनीकी क्षेत्र कुछ नया और रोचक पढने और जानने की इच्‍छा है तो इसे एक बार अवश्‍य देखें,
लेख पसंद आने पर टिप्‍प्‍णी द्वारा अपनी बहुमूल्‍य राय से अवगत करायें, अनुसरण कर सहयोग भी प्रदान करें
MY BIG GUIDE

Umar Chand Jaiswal said...

नीलोतपल की कविताएँ पहली बार पढ कर लगा आप का कैसे क।





फेसबुक पर कमेंट करने का धैर्य चाहिए । लगता है यहा भी मूर्खों की टोली का कब्जा हो गया है।


फेसबुक पर कमेंट करने के लिए धैर्य चाहिए पता नही

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